आइये बात करते है एक ऐसी कहानी की जिसको सुनाने पर आये तो उसका अंत हीं नहीं होता। महाभारत एक महायुद्ध की कथा मात्र नहीं है बल्कि रहस्यों का भंडार है महाभारत की कहानी शुरू होती है हस्तिनापुर के महाराज शांतनु से जिनकी दो शादिया हुई थी और दोनों पत्नियों से उन्हें तीन संताने थी, पहली संतान थी देवव्रत जिन्होंने प्रतिज्ञा ली थी को आजीवन ब्रह्मचारी रहेंगे इसी कारण से उन्हें भीषम पितामह कहा जाता था और बाकि दो पुत्र थे जिनका नाम चित्रांगद और विचित्रवीर्य था जिनकी निसंतान होते हुए मृत्यु हुई थी। उन दोनों की मृत्यु के बाद, एक महर्षि व्यास के वरदान से उनकी पत्नियों को दो पुत्रो की प्राप्ति होती है एक नाम होता है धृतराष्ट्र और दूसरे पुत्र का नाम होता है पांडु।
धृतराष्ट्र नेत्रहीन थे उनकी शादी गांधारी से हुई थी जो गांधार राज्य के राजा की बेटी थी उसने अपनी तमाम उम्र आँखों पर कपड़े की पट्टी बंद कर गुजार दी ताकि वो अपने पति के दर्द को महसूस कर सके। गांधारी ने 100 बच्चों को जन्म दिया था जिसमें से दो मुख्य थे, दुर्योधन और दुशंषान। गांधारी के सारे पुत्र बचपन से बहुत कपटी थे।
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वही दूसरी ओर पाण्डु की दो पत्निया थी एक का नाम कुंती था और दूसरी का माद्री। पहली पत्नी कुंती को ऋषि दुर्वासा ने वरदान दिया था कि वो किसी भी देवता से इच्छा पुत्र ले सकती है और पाण्डु से शादी करने से पहले ही उसने सूर्य देवता से एक कारन नामक पुत्र की प्राप्ति की थी परन्तु समाज क्या कहेगा इस डर के कारण अपने नाजायज पुत्र को नदी में बहा दिया जो किसी सारथी अधिरथ को बहता हुआ मिलता है और वो ही इससे बचपन से पालता है।
श्राप के कारण संतान सुख की प्राप्ति से पहले ही पाण्डु की मृत्यु हो गयी। पाण्डु की मृत्यु के बाद गांधारी इसी ऋषि दुर्वासा के दिए गए वरदान से तीन पुत्रो की प्राप्ति करती है जिनका नाम होता है युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन। वही दूसरी और दूसरी पत्नी दो बच्चो को जन्म देती है एक का नाम होता है नकुल और सहदेव। इसी तरह पाण्डु के मृत्यु के बाद भी उसके पांच पुत्र होते है जिन्हे आज हम पांच पांडव के नाम से जानते है।
कुछ सालो बाद, हस्तिनापुर के सारे राजकुमार बढ़ें हो जाते है और राज्य क बुजुर्ग लोग दुविधा में पढ़ जाते है की किस को राजकुमार घोसित किया जाए। धृतराष्ट अपने बेटे दुर्योधन को अपने राज्य के राजकुमार बनाना चाहते थे लेकिन मज़बूरी में युधिष्ठिर को बनाया। मामा शकुनि, दुर्योधन और दुशासन पांडवों से ईर्ष्या करते थे। शकुनी ने वास्तुकार पुरोचन को बुलाया और कहा कि लाह और घी जैसे ज्वलनशील सामग्रियों के एक महल लाक्षागृह का निर्माण करे। इसके बाद वह पांडवों और रानी मां कुंती को वहां रहने के लिए बुलाता है, जिससे वो लोग जिन्दा जलकर मर जाये। हालांकि, पांडवों के बुद्धिमान चाचा विदुर को उनकी चालाकी का पता लग जाता है और पहले से लाक्षागृह एक सुरंग खुदवा देता है और उन्हें पहले से ही उस सुरंग से जाने की चेतावनी दे देता है। आग लगने पर, पांडव वैसा ही करते है और सुरक्षा से बचते छुपाते हुए निकल आते है। उसके बाद हस्तिनापुर में, पांडवों और कुंती को मृत माना जाता है।
लाक्षागृह से बचने के बाद, वे लोग कुछ दिन वन में छिपकर रहते है। उसके बाद उन्हें पांचाल राज्य में एक स्वयंवर का पता चलता है और वह लोग वहां पर ब्राह्मण बनकर जाते है। ये ऐलान किया गया था कि जो भी इस स्वयंवर में जीतेगा उसकी शादी द्रौपदी से होगी। इस प्रतियोगिता में, उम्मीदवार को नीचे तेल में मछली के प्रतिबिंब को देखते हुए छत पर चलती मछली की आँख पर तीर मारना था। अधिकांश राजकुमार विफल रहे, कई धनुष को उतारने में असमर्थ थे, अर्जुन सफल हुए। पांडव अपने घर लौटते हैं और अपनी मां को कहते हैं कि अर्जुन ने एक प्रतियोगिता जीती है और उस चीज़ को देखने के लिए बोलते है। बिना देखे, कुंती बोलती है जो भी लाये हो उसे आपस में बाँटलो। तब पांचो भाइयों को द्रोपदी से शादी करनी पड़ी।
जब धृतराष्ट और गांधारी को पता चला की पांडव जिन्दा है और उनका विवाह हो गया है तो उन्होंने पांडवो को बुलवाया. पांडव वापिस हस्तिनापुर आ गए। उसके लौटने के बाद, राज्य का बंटवारा किया गया और पांडवो को एक नया राज्य दिया गया जिसका नाम इंद्रप्रस्थ था जो आज के दौर में दिल्ली के नाम से जाना जाता है। इसके बाद भी न तो पांडव और कौरव दोनों ही इस व्यवस्था से खुश थे।
माया नामक एक दानव ने पांडवो के लिए इंद्रप्रस्थ में अद्भुत महल का निर्माण किया। यह जादुई महल तालाबों और झीलों के साथ-साथ प्राकृतिक तालाबों और झीलों से भरा था। इस महल में कुछ ऐसे मायावी तलाव थे, जो देखने में तालाब नहीं लगते थे। जब दुर्योधन पांडवों के राजसूया यज्ञ के लिए उनके महल में आया, तो वह एक मायावी तालाब में गिर गया, यह सोचकर कि यह कृत्रिम था। उसके तालाब में गिरने पर द्रौपदी जैसे हसने लगी और बोली अंधे का पुत्र अँधा ही होता है। फिर उसके क्रोध के लिए कोई जगह नहीं था वह अपने अपमान के बदला लेने का फैसला करता है। असल में वही द्रौपदी द्धारा उसका होना अपमान होना महाभारत जैसे युद्ध का कारण था।
दुर्योधन के अपमान के बाद, मामा शकुनी युधिष्ठिर को पासा खेलने के लिए आमंत्रित करते हैं। पासा का खेल हर्ष और उल्लास से शुरू होता है। धीरे धीरे शकुनी उन्हें धोखे से जिताता है। लेकिन कुछ समय बाद, वह चीजों को खोना शुरू कर देता है और वह अपना राज्य खो देता है। वह तब भी अपने भाइयों, खुद को और अंततः अपनी पत्नी को गुलामता में जुटाता है अंत में, उसने सबकुछ खो देता है।
आखिरकार, हर्षित कौरव बहुत क्रूर हो गए और पांडवों का अपमान करने लगे। धोखे से उन्हें हराने के बाद भी, वे उनसे गंदे अपशब्दों में बोलने लगे। यह उनकी क्रूरता का अंत ही नहीं था, इसके बाद दुर्योधन ने अपने भाई दुशासन को भरी सभा के सामने द्रौपदी के कपड़े उतरने का आदेश दिया। वह उसकी साड़ी खींचने लगती है, लेकिन भगवान कृष्ण ने अपनी लीला दिखाई और उसकी इज़्ज़त बचाली। भगवान् द्रोपदी की साड़ी की लम्बाई बढ़ाते रहे और दुशासन खींचता रहा। अंत में वह साड़ी को खींचते-खींचते थक गया है।
धृतराष्ट्र, भीष्म, और अन्य बुजुर्ग इस स्थिति को रोकने के लिए बढे, लेकिन दुर्योधन दृढ़ था उसने सब वापिस देने से मना कर दिया। उनकी इच्छाओं के खिलाफ धृतराष्ट्र ने आदेश एक और पासा खेलने का आदेश दिया। इस बार शर्त ये थी कि अगर पाण्डवः हार गए तो उन्हें 13 साल के लिए वनवास में जाना होगा। इस पासा में भी वो हार गए और वनवास के लिए चले गए।
पांडव ने वन में तेरह वर्षों बिताये और उस समय के दौरान कई कारनामों और समस्याओं का सामना किया। जब वो लोग वन से लौटे तो उन्होंने अपना इंद्रप्रस्थ वापिस माँगा, लेकिन दुर्योधन ने वापसी करने से इनकार कर दिया। उसने पांडवों को लड़ने के लिए मजबूर किया और फिर युद्ध अनिवार्य हो गया।
कुछ दिनों बाद महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में शुरू हो गयी। अपनी माँ सत्यवती को दिए हुए वचन के अनुसार से भीष्म पितामह कौरव सेना क साथ थे। दुर्योधनकार मित्र होने के कारण करण और राज्यगुरु होने के नाते द्रोणाचार्य भी कौरव की सेना के साथ थे। दोनों सेनाओं भगवान कृष्ण को अपने साथ चाहती थी पर उन्होंने लड़ने से मना कर दिया। दुर्योधन ने उनकी सेना मांगी और अर्जुन ने उन्हें अपने साथ माँगा इस तरह भगवान् कृष्ण अर्जुन के सारथी बने थे।
महाभारत की लड़ाई शुरू होने से पहले, अर्जुन एक दुविधा में पड़ गया था और भीषम पितामह और गुरु द्रोणाचार्य सहित अपने स्वयं के परिजनों के खिलाफ लड़ने से इनकार कर दिया। भगवान कृष्ण, जो पांडवों के एकमात्र सलाहकार और सच्चे दोस्त थे समस्याओं के दौरान उनकी सहायता करते थे, उन्होंने अर्जुन को महाभारत युद्ध की धार्मिक प्रकृति बताई और बिना किसी हिचकिचाहट के युद्ध में लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने महान भारतीय महाकाव्य, भगवत गीता के मूल्यवान और व्यावहारिक सबक सिखाए। अर्जुन को भगवान कृष्ण की सलाह की जरूरत थी और उसके बाद अर्जुन ने लड़ाई करने का फैसला किया।
श्रीकृष्ण के गीता उपदेश के बाद अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाकर युद्ध की घोषणा की। पहले ही दिन भीम ने दु:शासन पर आक्रमण किया और अभिमन्यु ने भीष्म का धनुष तथा रथ का ध्वजदंड काट दिया परन्तु कही पांडवो के सैनिक भीषम पितामह द्धारा मरे गए। पहले दिन की समाप्ति पर पांडव पक्ष को भारी नुकसान उठाना पड़ा। दूसरे दिन भी कौरव ही भारी रहें थे। परन्तु तीसरे और चौथे दिन कौरवों को नुकसान उठाना पड़ा और पांडव पक्ष मजबूत रहा। उसके बाद अगले चार दिन तक दोनों पक्ष एक सामान रहते है। दसवे दिन पर भगवान कृष्णा के बहुत कहने पर अर्जुन अपने ही दादा भीष्म पितामह को बाणों की शरशय्या पर लेटा देता है।
तेरहवें दिन कौरव चक्रव्यूह की रचना करते है और अर्जुन के न होने के कारण अभिमन्यु को उस चक्रव्यूह में जाना पढता है। चक्रव्यूह में करण, दुर्योधन और सब अभिमन्यु को कपट से मार देते है। उसके बाद अगले तीन दिनों में जयद्रथ, दुःशासन, गुरु द्रोणाचार्य ,कर्ण, शल्य शकुनि और दुर्योधन के 22 भाई मारे जाते हैं।
आखिरी दिन में अपनी पराजय होते हुए देख दुर्योधन भागकर सरोवर के स्तंभ में जा छुपता है। छिपे हुए दुर्योधन को पांडवों द्धारा ललकारे जाने पर वह भीम से गदा युद्ध करता है और छल से जंघा पर प्रहार किए जाने से उसकी मृत्यु हो जाती है। इस तरह पांडव विजयी होते हैं।
युद्ध केवल 18 दिनों तक चली और पांडवों ने युद्ध जीता। उन्होंने हस्तिनापुरा पर कई वर्षों तक शासन किया। ऐसा कहा जाता है कि धृतराष्ट्र और उनकी पत्नी युद्ध के बाद जंगलक की और चले जाते है। माना जाता है कि भगवान् कृष्ण ने युद्ध के लगभग तीस साल बाद अपना देह छोड़ दिया। जब पांडवों ने महसूस किया कि अब समय आ गया है की इस धरती को छोड़ देना चाइये, तो वे सभी पैदल उत्तर की ओर एक यात्रा पर निकल आए थे। ऐसा कहा जाता है कि स्वाइग का दरवाजा उत्तरी क्षितिज पर उनके लिए खुले थे और उस द्वार से स्वरक की और चले गए।
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